




भीलवाड़ा (Bhilwara), 09 मार्च . रामस्नेही संप्रदाय के फूलड़ोल महोत्सव के तीसरे दिन गुरुवार (Thursday) को संप्रदाय के पीठाधीश्वर जगदगुरू स्वामी रामदयालजी महाराज का चातुर्मास अपने यहां कराने का अनुरोध करने के लिए हर कोई लालायित दिखा. भक्तों ने अपने अपने क्षेत्र के संतों की अगुवाई में बारादरी पहुंच कर आचार्य के समक्ष चातुर्मास की अर्जियां पेश की. इनका परंपरागत तरीके से वाचन भी किया गया. आज महोत्सव के तीसरे दिन भी रामनिवास धाम में भक्तों की रेलमपेल रही. स्तंभजी के दर्शन करने के साथ ही आचार्य का आर्शीवाद लेने वालों की लंबी कतार लगी रही.
प्रातः कालीन रामधुनि, आरती वंदना के बाद रामसुमिरन, वाणीजी का पाठ होने के बाद बारादरी में संतों ंके प्रवचन हुए. बुधवार (Wednesday) को रात्रि कालीन प्रवचन सभा में संतों के अलावा आचार्य के प्रवचन हुए.
आज दोपहर में बारादरी में हुई धर्मसभा में रामस्नेही सम्प्रदायाचार्य अनन्त श्रीविभूषित जगतगुरू स्वामीजी रामदयालजी महाराज ने कहा है कि भारत की भूमि मानवी विशेषताओं की रद्यगर्भा रही है. विश्व में आध्यात्मिक वेदांत के प्रकाश को बिखरने में महाप्रभु रामचरणजी महाराज अग्रदूत थे. उन्होंने देश विश्व को सत्यपथ दिखाया. उनका जीवन चरित्र आज सबके लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गया है. महाप्रभु रामचरण महाराज आध्यात्मिक, वेदांत, सौम्यता पूरे विश्व में फैलाकर सबके लिए एक मिसाल बन गए. उन्होंने कहा कि राम नाम जप व तप से ही रामस्नेही संप्रदाय आज अपने चरम पर है. राम नाम यज्ञ सनातन संस्कृति में सबसे बड़ा यज्ञ है. हमें जो मानव जीवन मिला है यह धर्माचरण के लिए है. उन्होंने राम नाम सुमिरन का आह्वान करते हुए कहा कि धर्म का बीज ही राम नाम है. बिना त्याग के मनुष्य को कुछ नहीं मिलता है जो आदमी त्याग करता है, लोग उसे नमस्कार करते हैं तथा जो आदमी अपना स्वार्थ देखता है, उससे लोग दूर भागते हैं.
रामस्नेहीसंप्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण महाराज ने संवत 1817 में भीलवाड़ा (Bhilwara) के मियाचंद जी की बावड़ी की गुफा में भजन एवं राम नाम का सुमिरन किया. इस दौरान कई शिष्य बने. जिन्हें रामस्नेही पुकारा जाने लगा. यहीं से रामस्नेही संप्रदाय की शुरुआत हुई. 253 साल पहले फूलडोल महोत्सव मनाने की परंपरा भीलवाड़ा (Bhilwara) से शुरू हुई. संवत 1822 में यहां रामद्वारा का निर्माण कार्य शुरू हुआ. महाराणा के अनुरोध पर तीन बार उदयपुर (Udaipur) में फूलडोल मनाया गया.
स्वामी रामचरण महाराज के शिष्य देवकरण, कुशलराम नवलराम ने होली पर प्रहलाद कथा का अनुरोध किया. कथा के दौरान फूलों की बारिश होने लगी. इस पर इस आयोजन का नाम फूलडोल पड़ा. इसके बाद से यह परंपरा निरंतर चल रही है. शाहपुरा राजा के अनुरोध पर स्वामी संवत 1826 में शाहपुरा पहुंचे. राजा भीमसिंह उनकी माता शिष्य बने. होली पर भक्तों ने राजा से फूलडोल आयोजन पर चर्चा की. स्वीकृति मिलने पर जागरण राममेडिया में हुआ. राजा ने शिष्यों को शाहपुरा बुलवाया. स्थायी नया बाजार बसाया. शाहपुरा में अभी फूलडोल का मुख्य महोत्सव पांच दिन का होलिका दहन से रंग पंचमी तक मनाया जाता है. पहला फूलडोल भीलवाड़ा (Bhilwara) तथा तीन फूलडोल उदयपुर (Udaipur) में हुए. उदयपुर (Udaipur) महाराणा के अनुरोध पर संवत 1876 में महाराज दूल्हेराम ने उदयपुर (Udaipur) में फूलडोल मनाया. महाराणा शंभूसिंह के अनुरोध पर संवत 1930 में हिम्मतराम महाराज ने गुलाबबाग उदयपुर (Udaipur) में फूलडोल मनाया. महाराणा भोपाल (Bhopal) सिंह के अनुरोध पर संवत 1993 में महाराज निर्भयराम ने उदयपुर (Udaipur) में फूलडोल मनाया. इस दौरान शाहपुरा में एक दिन का फूलडोल मनाया गया.
पंगतचैक में भोजन प्रसादी ग्रहण करने के लिए संतों की पंगत लगती है. आचार्य भोजन की शुरुआत कराते हैं. आचार्य के लिए थाल सजता है. प्रसाद ग्रहण करने के बाद आचार्य भक्तों को प्रसाद बांटते हैं. थाल के प्रसाद के लिए हजारों भक्तों की कतार लगी रहती है. यह परंपरा प्रतिवर्ष महोत्सव में रहती है. दशकों से यह परंपरा चली आ रही है.
/मूलचन्द